उनके बचपन का नाम युधिष्ठिर साहनी था। वे प्रख्यात कथाकार भीष्म साहनी के बड़े भाई और चरित्र अभिनेता परीक्षित साहनी के पिता थे। उनका जन्म रावलपिंडी में हुआ था। लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर डिग्री पूरी करने के बाद, वे रावलपिंडी वापस आ गए और अपने परिवार के व्यवसाय में शामिल हो गए। के उत्तरार्ध में, साहनी और उनकी पत्नी ने शांतिनिकेतन में टैगोर के विश्व-भारती विश्वविद्यालय में अंग्रेजी और हिंदी शिक्षक के रूप में काम किया था। में वे महात्मा गांधी के साथ भी काम करने गए। अगले साल साहनी बीबीसी-लंदन की हिंदी सेवा में रेडियो उद्घोषक के रूप में शामिल होने के लिए इंग्लैंड गए। वहां से में वे भारत लौट आए।
बलराज साहनी की दिलचस्पी शुरू से ही अभिनय में थी। ‘इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन’ (इप्टा) के नाटकों के साथ उन्होंने अपने अभिनय की शुरुआत की थी। उन्होंने फिल्म ‘इंसाफ’ () के साथ मुंबई में अपना फिल्मी सफर शुरू किया। उसके बाद में केए अब्बास द्वारा निर्देशित ‘धरती के लाल’ में काम किया। मगर में बिमल राय की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ से साहनी को एक उत्कृष्ट अभिनेता के रूप में सबसे पहले पहचान मिली थी। इस फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल में अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। उन्होंने रवींद्रनाथ द्वारा लिखी कहानी पर बनी फिल्म ‘काबुलीवाला’ में भी काम किया था।
साहनी की लगभग सभी फिल्मों में उनके अभिनय को बहुत पसंद किया गया और उनकी सराहना हुई। ‘लाजवंती’ (), ‘घर संसार’ (), ‘नीलकमल’, ‘घर घर की कहानी’, ‘दो रास्ते’ और ‘एक फूल दो माली’ जैसी फिल्मों में उनकी चरित्र भूमिकाओं की बहुत सराहना की गई। उन्होंने लोकप्रिय पंजाबी फिल्म ‘नानक दुखिया सब संसार’ () के साथ-साथ समीक्षकों द्वारा प्रशंसित ‘सतलुज दे कंदे’ में भी अभिनय किया था। उनकी आखिरी फिल्म थी ‘गरम हवा’। उसमें विभाजन के दौरान नायक पाकिस्तान जाने से इंकार कर देता है। समीक्षकों ने उस फिल्म में उनके अभिनय की काफी सराहना की।
साहनी एक प्रतिभाशाली लेखक भी थे। उन्होंने शुरुआती लेखन अंग्रेजी में किया, मगर बाद में वे पंजाब चले गए और पंजाबी साहित्य के प्रतिष्ठित लेखक के रूप में अपनी पहचान कायम की। में, पाकिस्तान यात्रा के बाद उन्होंने ‘मेरा पाकिस्तानी सफर’ किताब लिखी थी। उनकी पुस्तक ‘मेरा रूसी सफरनामा’ पर उन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी- ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ नाम से। साहनी ने पटकथा लेखन में भी योगदान दिया था। उन्होंने में फिल्म ‘बाजी’ की पटकथा लिखी, जिसमें देव आनंद ने भूमिका निभाई और गुरु दत्त ने निर्देशित किया था। उन्हें में पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
साहनी बेहद स्वाभाविक अभिनेता थे। उन्हें अपने साधारण व्यक्तित्व और अभिनय की एक परिष्कृत शैली के कारण याद किया जाता है। उन्हें एक आदर्श माडल के रूप में भी देखा गया, क्योंकि उन्होंने कभी भी किसी ऐसे विज्ञापन में काम नहीं किया, जिस पर किसी भी प्रकार के घोटाले का आरोप लगा था। ‘दो बीघा जमीन’ और ‘गरम हवा’ में उनके अभिनय ने न सिर्फ उन्हें उत्कृष्ट कलाकार की पहचान दी, बल्कि वह दूसरे कलाकारों के लिए एक मिसाल भी बना। उनके अभिनय को नव-यथार्थवादी सिनेमा की पहचान के रूप में जाना जाता है।
बलराज साहनी द्वारा में मुंबई में स्थापित ‘पंजाबी कला केंद्र’ ने उनके नाम पर एक पुरस्कार स्थापित किया था, जो हर साल उत्कृट कलाकारों को प्रदान किया जाता है।